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पेड़ कहा गए और पैर- दो कविताएँ

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एक पैर आते है किवाड़ पास दहलीज़ पर रखी चप्पल किसका इंतजार करती है रुके हुए है? लौटने की इच्छा से किवाड़ को दूर से देखता हूँ--- ये पैर किसकी बांट में घर से बाहर जाकर फूस का सा मन लिए दो बच्चे हवा में हाथ हिलाते है वे इतना ही जानते है हर शाम को पक्षी घर लौट आते है काठ का मन लिए चिर विछोह में डूबी आंखे किवाड़ के पीछे से टुक-टुक देख रही है कुशलगढ़ कुछ नही कहना उसे कुछ वाक्य इसलिए पूरे नही होते वे शब्दों के बिना ज्यादा कारगर है दो इन घरों में घास क्यों उगी है कौन रहता था यहाँ काठ पर ताला किसकी इच्छा से लगाया है वे फूस की तरह सूखे हुए लोग इस आँगन को लीपने वाली स्त्री और उसका आदमी कहा गया - छाती से चिपका कर नवजात शिशु को या वे अंगुली पकड़ कर या कंधे पर बैठकर कैसे - कैसे गए होंगे इस पेड़ो के नीचे बैठने वाला गाँव कहा है? अरे, वो पेड़ कहा गए